रंगा-बिल्ला: खौफ की साये में दिल्ली. वो अपराध जिससे पूरे देश में मच गया था हंगामा

रंगा-बिल्ला: खौफ की साये में दिल्ली

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रंगा-बिल्ला: खौफ की साये में दिल्ली

*1978 की एक सर्द शाम, दिल्ली की सड़कों पर सन्नाटा पसरा था। गलियों में कुहासा छाया था, और दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज़ गूंज रही थी। लेकिन उस रात, कुछ ऐसा हुआ जिसने न सिर्फ दिल्ली, बल्कि पूरे हिंदुस्तान को दहला दिया। दो मासूम बच्चों की चीखें, जो रात के सन्नाटे में दब गईं, एक ऐसी कहानी की शुरुआत थी, जिसे आज भी लोग कांपते हुए याद करते हैं। यह है रंगा-बिल्ला की खौफनाक दास्तान, जिसमें अपराध, रहस्य, और थ्रिलर का ऐसा मिश्रण है, जो आपके रोंगटे खड़े कर देगा।*

रंगा-बिल्ला: खौफ की साये में दिल्ली
रंगा-बिल्ला: खौफ की साये में दिल्ली

 अपहरण की रात

26 अगस्त 1978, दिल्ली का मध्यमवर्गीय मोहल्ला, जहां नौसेना अधिकारी कैप्टन चोपड़ा का परिवार रहता था। गीता चोपड़ा (16) और उसका छोटा भाई संजय (14), दोनों स्कूल के बाद ऑल इंडिया रेडियो के लिए एक युवा कार्यक्रम में हिस्सा लेने निकले। गीता की हंसी और संजय की शरारतें मोहल्ले की गलियों में गूंजती थीं। लेकिन उस दिन, जैसे ही वे घर से कुछ कदम दूर पहुंचे, एक पुरानी फिएट कार उनके सामने रुकी। कार का शीशा नीचे सरका, और एक शख्स ने मुस्कुराते हुए कहा, “बच्चों, रास्ता भूल गए क्या? आओ, हम छोड़ देंगे।”

गीता ने संजय का हाथ पकड़ा, लेकिन इससे पहले कि वे कुछ समझ पाते, कार से दो आदमी उतरे। एक लंबा, हट्टा-कट्टा, जिसके चेहरे पर दाढ़ी थी—यह था कुलजीत सिंह उर्फ रंगा। दूसरा पतला, चालाक नजरों वाला—जसबीर सिंह उर्फ बिल्ला। दोनों ने बच्चों को जबरदस्ती कार में ठूंसा और गाड़ी दिल्ली की सड़कों पर सरपट दौड़ने लगी।

प्रतीकात्मक चित्र
प्रतीकात्मक चित्र

 खौफ का मंजर

कार में गीता और संजय डरे हुए एक-दूसरे का हाथ थामे बैठे थे। रंगा ने कार का रेडियो चालू किया, जिसमें पुराना गाना बज रहा था, लेकिन उसकी आंखों में क्रूरता साफ दिख रही थी। बिल्ला ने पीछे मुड़कर कहा, “चुप रहो, नहीं तो…” उसने अपनी जेब से चाकू निकाला, जिसकी चमक ने बच्चों को और डरा दिया।

रंगा और बिल्ला की योजना थी फिरौती वसूलना। कैप्टन चोपड़ा एक सम्मानित नौसेना अधिकारी थे, और दोनों अपराधियों को लगा कि वे मोटी रकम वसूल सकते हैं। लेकिन जैसे ही वे दिल्ली के बाहरी इलाके, रिज क्षेत्र की सुनसान सड़कों पर पहुंचे, उनकी योजना बदल गई। पुलिस की गश्त और फिरौती की कॉल में देरी ने उन्हें घबरा दिया। बिल्ला चिल्लाया, “रंगा, ये बच्चे हमें फंसा देंगे!” रंगा ने ठंडी सांस ली और कहा, “फिर खत्म कर दो इन्हें।”

उस रात, रिज क्षेत्र के जंगल में गीता और संजय की चीखें गूंजीं। गीता ने अपने भाई को बचाने की कोशिश की, लेकिन रंगा की क्रूरता ने दोनों की जिंदगी छीन ली। बच्चों के शव जंगल में फेंक दिए गए, और रंगा-बिल्ला रात के अंधेरे में गायब हो गए।

प्रतीकात्मक चित्र
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पुलिस की तलाश

अगली सुबह, जब गीता और संजय घर नहीं लौटे, तो कैप्टन चोपड़ा ने पुलिस को सूचना दी। दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर राजेंद्र सिंह को इस केस की जिम्मेदारी सौंपी गई। इंस्पेक्टर सिंह ने अपनी टीम के साथ तलाशी शुरू की। मोहल्ले के लोगों से पूछताछ, सड़कों पर गश्त, और रेडियो स्टेशन की जांच—पुलिस ने हर संभव कोशिश की।

दो दिन बाद, रिज क्षेत्र में एक चरवाहे ने दो शव देखे। पुलिस मौके पर पहुंची, और शवों की शिनाख्त गीता और संजय के रूप में हुई। यह खबर दिल्ली में आग की तरह फैल गई। इंस्पेक्टर सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “यह एक जघन्य अपराध है। हम अपराधियों को जल्द से जल्द पकड़ लेंगे।”

पुलिस का बयान (इंस्पेक्टर राजेंद्र सिंह):
“हमारे पास कुछ अहम सुराग हैं। टायर के निशान और गवाहों के बयानों से पता चला है कि अपराध में एक फिएट कार का इस्तेमाल हुआ। हम हर कोने में तलाश कर रहे हैं। अपराधी ज्यादा दिन नहीं छिप पाएंगे।”

प्रतीकात्मक चित्र
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पत्रकारों का हंगामा

इस मामले ने दिल्ली के पत्रकारों को सनसनीखेज खबर का मौका दे दिया। ‘दैनिक समाचार’ के पत्रकार रमेश शर्मा ने अपनी हेडलाइन में लिखा, “दिल्ली में खौफ: मासूम बच्चों की हत्या, अपराधी फरार!” रमेश ने मोहल्ले में जाकर लोगों से बात की और लिखा, “यह अपराध दिल्ली के दिल पर चोट है। लोग डरे हुए हैं, और पुलिस पर सवाल उठ रहे हैं।”

पत्रकार का बयान (रमेश शर्मा):
“यह सिर्फ एक हत्या नहीं, बल्कि हमारे समाज की असफलता है। दिल्ली जैसे शहर में बच्चे सुरक्षित नहीं, तो हम किस मुंह से प्रगति की बात करते हैं? पुलिस को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए।”

पत्रकारों की खबरों ने जनता में गुस्सा भड़का दिया। लोग सड़कों पर उतर आए, और पुलिस मुख्यालय के बाहर प्रदर्शन होने लगे।

न्यूज पेपर
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नेताओं की सियासत

इस मामले ने राजनीति को भी गर्मा दिया। दिल्ली के तत्कालीन गृह मंत्री ने विधानसभा में बयान दिया, “हम इस मामले को गंभीरता से ले रहे हैं। अपराधियों को सख्त सजा दी जाएगी।” लेकिन विपक्ष ने सरकार पर निशाना साधा। विपक्षी नेता हरि प्रसाद ने कहा, “यह सरकार की नाकामी है। दिल्ली में कानून व्यवस्था चौपट है।”

नेता का बयान (हरि प्रसाद):
“बच्चों की हत्या ने दिखा दिया कि दिल्ली में कोई सुरक्षित नहीं। सरकार को इस्तीफा देना चाहिए। हम मांग करते हैं कि इस मामले की जांच सीबीआई को सौंपी जाए।”

नेताओं की बयानबाजी ने मामले को और उलझा दिया, लेकिन पुलिस अपनी जांच में जुटी रही।

 

अपराधियों की गिरफ्तारी

पुलिस को एक गवाह ने बताया कि उसने अपहरण के दिन एक फिएट कार को संदिग्ध हालत में देखा था। टायर के निशानों और कार के मॉडल से पुलिस ने रंगा और बिल्ला को ट्रेस किया। रंगा को दिल्ली के एक स्लम से पकड़ा गया, जहां वह शराब के नशे में था। बिल्ला ने भागने की कोशिश की, लेकिन उसे रेलवे स्टेशन से धर दबोचा गया।

पूछताछ में रंगा ने टूटकर सब कबूल कर लिया। उसने बताया कि वे फिरौती के लिए बच्चों को ले गए थे, लेकिन डर की वजह से उन्होंने हत्या कर दी। बिल्ला ने गीता के साथ बदसलूकी की कोशिश की थी, जिसने मामले को और जघन्य बना दिया।

प्रतीकात्मक चित्र
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 कोर्ट का ड्रामा

मामला दिल्ली की निचली अदालत में पहुंचा। अभियोजक ने साक्ष्यों के साथ रंगा और बिल्ला की क्रूरता को कोर्ट के सामने रखा। गवाहों ने बताया कि कैसे दोनों ने बच्चों को बेरहमी से मारा। बचाव पक्ष ने दलील दी कि रंगा और बिल्ला गरीब परिवार से थे और मानसिक रूप से अस्थिर थे, लेकिन जज ने उनकी दलीलें खारिज कर दीं।

1979 में कोर्ट ने दोनों को फांसी की सजा सुनाई। रंगा ने कोर्ट में चिल्लाकर कहा, “मुझे माफ कर दो, मैंने गलती की!” लेकिन जज ने कहा, “तुमने जो किया, वह माफी के काबिल नहीं।”

इमेज 7: कोर्ट रूम में जज सजा सुनाते हुए। रंगा और बिल्ला सिर झुकाए खड़े हैं, और पीछे भीड़ गुस्से से भरी है।

 फांसी की रात

31 जनवरी 1982, तिहाड़ जेल। रात के 2 बजे रंगा और बिल्ला को फांसी के तख्ते पर ले जाया गया। जेलर ने बताया कि रंगा रो रहा था, जबकि बिल्ला ने आखिरी बार मुस्कुराने की कोशिश की। फांसी के बाद दिल्ली में लोग राहत की सांस लेने लगे।

 

निष्कर्ष: खौफ का सबक

रंगा-बिल्ला की कहानी एक ऐसी दास्तान है, जो अपराध की क्रूरता और न्याय की जीत को दर्शाती है। इसने दिल्ली को हिलाकर रख दिया और समाज को एक सबक दिया—अपराध का अंजाम सिर्फ सजा है। गीता और संजय की याद आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है, और उनकी हंसी उस रात के सन्नाटे में हमेशा गूंजती रहेगी।

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